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बस्तर का बेल मेटल आर्ट

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दंडकारण्य क्षेत्र में आने वाले बस्तर जिले की बेल मेटल आर्ट पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इतिहासकार मानते हैं कि इसमें 2500 ईसा पूर्व की हड़प्पा सभ्यता की झलक मिलती है। उस काल में जैसे हाथी, घोड़े व देवी-देवताओं की प्रतिमाएं मिली हैं, वैसा ही कलाकृति बेल मेटल में की जाती है। कई जगहों पर इसे झारा शिल्प और डोकरा (बुजुर्ग) आर्ट के नाम से भी जाना जाता है। बस्तर आने वाले विदेशी सैलानियों के लिए यह खास आकर्षण है। एक अध्ययन के मुताबिक बस्तर संभाग में करीब दस हजार परिवार बेल मेटल शिल्पकारी में लगे हैं।

बेल मेटल आर्ट की विशेषता

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बेल मेटल एक प्रकार का कांस्य (ब्रांज) है। इसमें तांबा और टिन का अनुपात लगभग 4:1 रहता है (जैसे 78% तांबा और 22% टिन)। बेल मेटल का अयस्क टिन, कॉपर और लोहा का सल्फाइड होता है जिसे स्टैनाइट कहते हैं। बेल मेटल कलाकृति तैयार करने में पांच धातुओं क्रमश: पीतल, कांसा, एल्युमीनियम, जस्ता और तांबे का उपयोग होता है। मिट्टी और मोम के माध्यम से पात्र बनाकर उसे आग में तपाकर बेल मेटल की मूर्ति में परिवर्तित किया जाता है और इन पर बारीक कारीगरी की जाती है। यह कलाकृतियां पूरी तरह से हाथों से बनी होती हैं।

100 से 65 हजार रुपए के बीच मिलती है कलाकृति

बस्तर संभाग में जहां भी गढ़वा जाति के लोग रहते हैं, उनका पेशा बेल मेटल शिल्पकारी ही है। छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में इसकी प्रदर्शनी आयोजित करता है, जिनमें दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु जैसे महानगर प्रमुख हैं। ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि कुछ राज्यों में भी यह कला जिंदा है। इससे निर्मित कलाकृतियों का इस्तेमाल साज-सज्जा और पूजा-पाठ में किया जाता है। इसमें छोटी से लेकर बड़ी वस्तुएं शामिल होती हैं, जिनकी कीमत 100 रुपये से 65 हजार रुपए तक होती है। बस्तर जिले में बेल मेटल के कारीगर सबसे ज्यादा दहि कोन्मा, मधी बोरान्द, कटागांव, कटनपूर, कोन्डागांव, जगदलपुर खारखोसा, गुन्डागांव, अलवनी में पाए जाते हैं।

जयदेव वाघेल ने पूरी दुनिया से करवाई बेल मेटल आर्ट की पहचान

पूरी दुनिया को बेल मेटल आर्ट से रूबरू कराने वाले शिल्प गुरु जयदेव बघेल थे। उन्होंने पूरी दुनिया में गडवा शिल्प के सैकडों प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए और अपने काम के जरिए छत्तीसगढ को एक विशेष पहचान दिलाई थी। कोंडागांव को शिल्पग्राम का दर्जा दिलाने का पूरा श्रेय भी डॉ बघेल को ही जाता है। बघेल ने 8 साल की उम्र से ही बेलमेटल के क्राफ्ट बनाना सीखना शुरू कर दिया था। उनके पिता सिरमनराम ने इस कला में उन्हें पारंगत किया जिसके बाद बघेल ने अपनी कोशिशों के चलते कोंडागांव को शिल्पग्राम के रूप में पहचान दिलाई। बघेल ने पेरिस, लंदन, स्कॉटलैंड, जापान जैसी जगहों में लोगों को बेलमेटल शिल्प का प्रशिक्षण दिया है।
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